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"غوبَر — بذرة التمرّد في 'غودان'"بقلم: إم. كاي. آزاد

 गोबर — गोदान का विद्रोही बीज


गोबर नाम था उसका,

पर मन में था आग का समंदर।

छोटे किसान का बेटा—

न न्याय मिला, न सम्मान का खंभा।

पर उसमें था

ज़मींदारी से आँख मिलाने का हौसला,

और शहर की चकाचौंध को

झूठा दिखाने का साहस।


गाँव में जन्मा,

पर सपनों की उड़ान थी अलग।

पिता होरी जहाँ

गाय के गोदान में ही धर्म तलाश रहा था,

वहीं गोबर

न्याय का अर्थ

ज़मींदार के खेत से निकालना चाहता था।


उसने बाग़ी बनना सीखा

उन गलियों में

जहाँ पसीने का मोल

कभी चार पैसे से ऊपर न गया।

जहाँ प्रेम

बाजार से सस्ता था

पर इज़्ज़त सबसे महँगी।


गोबर भागा शहर,

पर शहर भी तो

गाँव की ही परछाई था—

यहाँ भी शोषण,

यहाँ भी लूट,

यहाँ भी इंसान, इंसान का मुक़ाबिल।


उसने देखा—

कि लाठी नहीं,

सवालों से क्रांति होती है।

कि मज़दूरी से सिर्फ पेट नहीं

सोच भी भूखी रहती है।


गोबर,

पिता की गाय से अलग

नई सदी का बछड़ा था—

वो जो खेत नहीं,

किस्मत जोतने चला था।

जो ईश्वर से नहीं,

इंसाफ़ से डरता था।


गोबर वो चेतना है,

जो होरी की विवशता से टूटकर

नई ज़मीन खोजती है।

वो प्रतिरोध का पहला शब्द है,

जो प्रेमचंद के पन्नों से निकल

हर किसान के दिल में उगता है।


गोबर आज भी जिंदा है—

हर खेत में, हर शहर में,

जहाँ कोई नौजवान

न्याय के नाम पर

बेईमानी से लड़ने की ठानता है।


क्योंकि गोदान सिर्फ उपन्यास नहीं,

गोबर की आँखों से लिखा गया

समय का दस्तावेज़ है।

एम के आज़ाद




"غوبَر — بذرة التمرّد في 'غودان'"

كان اسمه غوبَر،
لكن في قلبه كان بحر من النار.
ابنُ فلاحٍ صغير —
لم ينل عدالة، ولا عمودًا من كرامة.
لكنّه كان يحمل
جرأة التحديق في عيني الإقطاع،
وشجاعة كشف زيف بريق المدينة.

وُلد في القرية،
لكنّ أحلامه كانت تحلّق بعيدًا.
في حين كان والده، هوري،
يبحث عن الدين في "غودان" (هبة البقرة)،
كان غوبَر
يريد استخراج معنى العدالة
من حقل الإقطاعي.

تعلّم التمرّد
في تلك الأزقّة
التي لم يُقدّر فيها العرق
بأكثر من أربعة قروش.
حيث كان الحبّ
أرخص من السوق،
لكنّ الكرامة كانت الأغلى ثمنًا.

هرب غوبَر إلى المدينة،
لكنّ المدينة لم تكن
سوى ظلّ للقرية—
فيها أيضًا استغلال،
وفيها أيضًا نهب،
وفيها الإنسان يواجه الإنسان.

رأى أنّ
الثورة لا تصنع بالعصيّ،
بل بالأسئلة.
وأنّ الأجور لا تسدّ الجوع فحسب،
بل إنّ الفكر أيضًا يبقى جائعًا.

غوبَر،
كان عِجلَ القرن الجديد،
منفصلًا عن بقرة والده—
لم يحرث الأرض،
بل كان يحرث المصير.
لم يكن يخاف من الإله،
بل من انعدام العدالة.

غوبَر هو الوعي،
الذي تحطّم من قيود هوري،
ليبحث عن أرض جديدة.
هو أولُ كلمات المقاومة،
التي خرجت من صفحات بريم تشاند
لتنبت في قلب كل فلاح.

غوبَر لا يزال حيًّا اليوم—
في كلّ حقل، في كلّ مدينة،
حين يعزم أيّ شاب
أن يقاتل الظلم
باسم العدالة.

لأنّ "غودان" ليس مجرد رواية،
بل وثيقةُ عصر
كُتبت بعيون غوبَر.

بقلم: إم. كاي. آزاد


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